तुम
कहाँ !
निशब्द गहराती
इस बर्फीली पहाड़ी वादी
की निस्तब्ध रात !
टिमटिमाते दूर उस अकेले विरान मकान में
लगता है तुम हो यहाँ !
अनवरत बिखरती रुई सी बर्फ में
तुम्हारी जागती सांसों की तपन मुझे
चुपके चुपके बहलाती !
लगता है तुम हो यहाँ !
शीतल हवाएँ नीरव रात्रि में
तुम्हारी नरम उंगलियां सी
खामोश गुनगुनाते होठों को सहलाती l
हाँ ! तुम यहाँ !
वादी में तैरते बादल के साथ उड़ते उड़ते
पहुँच उस पार उस मकान !
अधीर मन व्याकुल
बिन आहट अंदर ढूंढता हूँ तुम्हे यहाँ !
नहीं तुम खिड़की पर वादियों को निहारते ,
नहीं तुम आँगन में तारों के साथ ,
कहीं नहीं तुम यहाँ !
अरे तुम कहाँ !
भीगी पलकें ,कपकपाएँ होंठ
धुंधलाया सब ,
फिर से खोयीं
तुम जाने कहाँ !
दो बूँद आंसुओं की
अब फिर चली ढूंढने
अरे तुम कहाँ !
रामेशवर सिंह
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