Friday 29 August 2014

तुम कहाँ !

तुम कहाँ  !

निशब्द गहराती
इस बर्फीली पहाड़ी वादी
की निस्तब्ध रात !
टिमटिमाते दूर उस अकेले विरान मकान में
लगता है तुम हो  यहाँ !

अनवरत बिखरती रुई सी बर्फ में
तुम्हारी जागती  सांसों की तपन मुझे
चुपके चुपके बहलाती !
लगता है तुम हो  यहाँ   !

शीतल हवाएँ नीरव रात्रि में
तुम्हारी नरम उंगलियां सी
खामोश गुनगुनाते होठों को सहलाती l
हाँ ! तुम यहाँ  !

वादी में तैरते बादल के साथ उड़ते उड़ते
पहुँच  उस पार उस मकान  !
अधीर मन व्याकुल
बिन आहट अंदर ढूंढता हूँ  तुम्हे यहाँ !

नहीं तुम खिड़की पर   वादियों को निहारते ,
नहीं तुम आँगन में तारों के साथ ,
कहीं नहीं  तुम यहाँ !
अरे तुम कहाँ  !

भीगी पलकें ,कपकपाएँ होंठ
धुंधलाया सब ,
फिर से खोयीं
तुम जाने कहाँ !

दो बूँद आंसुओं की
अब फिर चली ढूंढने
अरे तुम कहाँ  !

रामेशवर सिंह

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